ऐतिहासिक >> जो इतिहास में नहीं है जो इतिहास में नहीं हैराकेश कुमार सिंह
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ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शोषण और दमन से त्रस्त झारखण्ड के आदिवासी सन्ताल बहादुरों की मुक्ति की सशक्त महागाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शोषण और दमन से त्रस्त झारखण्ड के आदिवासी सन्ताल
बहादुरों की मुक्ति-संग्राम की सशक्त महागाथा है ‘जो इतिहास में
नहीं है’-उपन्यास। सन् अठारह सौ सत्तावन से पूर्व हुए इन
आन्दोलनों के नायक वे लोग है,जिनके जल, जंगल और जमीन के नैसर्गिक अधिकारों
से उन्हें लगातार बेदखल किया जाता रहा है। अंग्रेजी हुकूमत जमींदार और
साहूकार के त्रिगुट ने अधिकार से वंचित कर रखा था। ऐसे में सिदो,बिरसा
मुण्डा जैसे लड़ाकों की अगुआई में सन्ताल क्रांति
‘हूल’ का नगाड़ा बज उठता है। इस क्रान्ति को मात्र
विद्रोह नहीं कहा जा सकता वरन् अपनी अस्मिता,स्वायत्तता और संस्कृति की
रक्षा के लिए यह उनका संघर्ष है। इसमें उन्हें पराजय और यातनाएँ ही
बार-बार टूटते हैं,फिर भी उनकी अपराजेय जिजीविषा अपनी आजादी के लिए
संघर्षरत रहती है। उपन्यास की यह कथा एक विद्रोही सन्ताल युवा मुरमू और
उराँव युवती लाली के बनैले प्रेम के ताने-बाने से बुनी गयी है,जिसमें वहाँ
के लोकजीवन और लोकरंग का गाढ़ापन है और जन-जातीय समाज की धड़कनें भी।
सन्देह नहीं कि बेहद रोचक और मर्म-स्पर्शी इस उपन्यास की कथा को सह्रदय
पाठक वर्षों तक अपने दिल में सँजोये रखेंगे।
शुरू करने से पहले
ईस्वी सन् 1763...!
उधवानाला के यु्द्ध में मेजर एडम्स ने नवाब मीर कासिम अली को पराजित कर झारखण्ड (तत्कालीन ‘जंगल तराई’) क्षेत्र में, ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
ईस्वी सन् 1765...
इंगलैण्ड की ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ ने शाह आलम द्वितीय से बंगाल और ओड़िसा की दीवानी हस्तगत कर ली। अब वर्तमान बिहार झारखण्ड भी तत्कालीन कम्पनी सरकार के अन्तर्गत कर चुकाने वाले राज्य बन गये।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी अभियान का नियमित प्रारम्भ ई. सन् 1857 से हुआ, इसे किताबी इतिहासकारों ने भी मान्यता दे दी है। गैर-सांस्थानिक इतिहासकारों ने भी सन् सत्तावन की देशव्यापी घटनाओं की विधिवत् पड़ताल करके इस काल के जनविद्रोही चरित्र को उभारा, परन्तु भारत का आदिवासी समाज जो भारत में अँग्रेजी राज्य तथा अँग्रेजों द्वारा पोषित जमींदारों-साहूकारों के विरुद्ध ई. सन् 1781 से ही अनवरत संघर्षरत रहा, उनका मुक्तिकामी संघर्ष अभी भी इतिहास के पृष्ठों पर ‘विद्रोह’ के रूप में ही दर्ज है।
ई. सन् 1781 में तिलिका माँझी ने अँग्रेजी राज को अमान्य कर आन्दोलन किया। स्थायी बन्दोबस्ती के छलना के बाद वनवासियों का आक्रोश ई. सन् 1798 में ‘तमाड़ विद्रोह’ के रूप में फूटा। तमाड़ में ही ई. सन् 1800 में दुखन माँझी तथा पुनः तमाड़ में ही ई. सन् 1819 में रुदन-कोंता मुण्डा के नेतृत्व में आन्दोलन हुए। ई. सन् 1831 में सिंहभूम में बिन्दराई-सिंगराई मानकी के नेतृत्व में द्वितीय ‘कोल विद्रोह’ और फिर ई. सन् 1855 में सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव मुर्मू नामक चार सहोदर सन्तालों की अगुआई में महान सन्ताल क्रान्ति ‘हूल’ का नगाड़ा बजा। उपरोक्त महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों के अतिरिक्त भी कई अन्य छोटे-मोटे चक्रवात उठे जो अल्पकालिक तथा अल्पप्रभावी रहे। ध्यातव्य है कि उपर्युक्त कथित ‘विद्रोहों’ का समय ई. सन् 1857 के पूर्व का था।
हारे हुए युद्ध से उबरा योद्धा अपने भीतर पुनः पुनः युद्धरत होने का साहस बचाए रख पाता है तो यह आन्तरिक विजय भी एक उपलब्धि होती है जो भविष्य की लड़ाइयों का पाथेय बन जाती है। झारखण्ड के आदि निवासियों ने अपने मन को जीता और अपनी संघर्षशील चेतना को संरक्षित रखा, जिसके साक्ष्य ई. सन् 1781 के ‘पहाड़िया विद्रोह’ से लेकर ई. सन् 1855 के ‘सन्ताल हूल’ तक ही नहीं, वरन् सन् सत्तावन के राष्ट्र व्यापी स्वाधीनता संग्राम...और आगे सन् 1900 में बिरसा मुण्डा के महाविद्रोह के ‘उलगुलान’ तक मिलते हैं।
उपर्युक्त आदिवासी (कथित) विद्रोहों के नायक ऐसे राजे-रजवाड़े नहीं थे जो अपने राज्य की रक्षा हेतु तलवारे तब लेकर उठे जब अँग्रेजों की हड़प नीति ने एक-एक कर उनके सिंहासनों को निगलना प्रारम्भ कर दिया। इनमें से कई रियासतें तो ऐसी भी थीं (हैदराबाद के निजाम, अवध के नवाब, बाजीराव पेशवा आदि-आदि), जिन्होंने अँग्रेजों से सहायक मैत्री (सबसिडियरी एलायंस) की आत्मछलना का शिकार होकर अँग्रेजी सत्ता के समक्ष घुटने टेके और जब ‘वेलेस्ली’ (गवर्नर जनरल, भारत, 1798-1828) ने उनकी पसलियों में मीठी छुरी मूठ तक उतारी तब तक लम्बे समय तक म्यान में सोयी-अलसायी अदूरदर्शी तलवारों में जंग लग चुकी थी।
सन् सत्तावन के पूर्व के झारखण्डी आन्दोलनों के नायक वे आदि विद्रोही थे जिनके जल-जंगल-जमीन के नैसर्गिक अधिकारों से उन्हें लगातार बेदखल किया जाता रहा था। अँग्रेज-जमींदार-साहूकार के त्रिगुट ने वस्तुतः वनपुत्रों को उनके जीने के प्राकृतिक अधिकार तक से वंचित कर रखा था।
इंगलैण्ड के ‘जेम्स द्वितीय’ की सत्ता को चुनौती दी गयी तो इसे इंगलैण्ड की महान क्रान्ति (ई. सन् 1688) कहा गया। ब्रितानी दासता के विरुद्ध अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के उदय को ‘ बोस्टन-टी-पार्टी’ (ई. सन् 1773) जैसा सभ्य-शिष्ट नाम दिया गया। ‘लुई सोलहवें’ के विरुद्ध भूमिहीन किसानों-बेरोजगारों ने ‘फ्रांसीसी क्रान्ति’ (ई. सन् 1789) का शंख फूँका। साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध चीन में ‘चीनी क्रान्ति’ (ई. सन् 1911) हुई। रूस के जार ‘निकोलस द्वितीय’ के विरुद्ध कृषकों-श्रमिकों का जनान्दोलन ‘रूसी क्रान्ति’ (ई. सन् 1917) के नाम से इतिहास में दर्ज किया जाता है परन्तु..साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों-निम्नमध्यमवर्गीय आम भारतीय जन-द्वारा क्रान्ति (रिवोल्यूशन) के लिए ‘सैन्य द्रोह’ (म्यूटिनी) की शब्दछलना गढ़ी जाती है। पश्चिम के आन्दोलन ‘द्रोह’ नहीं क्रान्तियाँ थीं, परन्तु अपनी भूमि, वन एवं स्वशासन के आदिम अधिकारों की वापसी हेतु झारखण्ड के वनपुत्रों के मुक्तिकामी संघर्षों को ‘विद्रोह‘ (रिवोल्ट) की संज्ञा दी जाती है। इतिहास की एक विडम्बना यह भी कि अँग्रेजों तथा अँग्रेज समर्थक देसी शोषकों के विरुद्ध मरणान्तक लड़ाई लड़ने वाले महानायक बिरसा मुण्डा (ई. सन् 1856-1900) तक को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता।
भारत में अँग्रेजी सत्ता स्थापित होते ही गुलाम भारत के इतिहास को स्वामी इंगलैण्ड के इतिहास का एक परिशिष्ट मात्र बना डाला गया...और दासों के अतीत को गौरावान्वित नहीं किया जाता। पूर्व के शासकों ने भी अपने कृत्यों को उपकार की भाँति महिमाण्डित करने हेतु इतिहास का उपयोग किया है। जिस प्रकार भारत के ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ को इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह’ कहकर उसके परिप्रेक्ष्य को सीमित करने के प्रयास किये थे ताकि इस भारतीय क्रान्ति को ‘विद्रोह’ की यूरोपीय परिभाषा में सीमित किया जा सके, उसी प्रकार ‘सन्ताल विद्रोह’ की संज्ञा भी एक जनक्रान्ति के परिप्रेक्ष्य को संकुचित कर उसके व्यापक स्वरूप को कुचलने का ही उपक्रम था।
सन्ताल आन्दोलन ‘हूल’ कोई विद्रोह मात्र नहीं था वरन् अपनी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति के लिए वनपुत्रों का मुक्तिकामी संघर्ष था। सन्तालों की यह क्रान्ति अँग्रेजों को भारत से भगाने की प्रथम जनक्रान्ति थी1 और इस व्यापक जनक्रान्ति में नेतृत्व भले सन्तालों ने किया था परन्तु सक्रिय भूमिका समस्त वनवासी जातियों-गोत्रों के साथ-साथ गैर-आदिवासी समाज ने भी निभायी थी। अँग्रेजों की सत्ता को तीरों पर तौलने वाले वनचरों ने निर्णायक न सही, परन्तु अनेक अवसरों पर अँग्रेजों को करारी मात भी दी थी।
इतिहास सदैव सत्य नहीं कहता। सिकन्दर, जो यूनानी नहीं था, वरन् मकदुनियाँ का वासी था, यूरोपीय इतिहासकारों ने उसे यूनानी बना डाला जबकि सिकन्दर ने सर्वप्रथम यूनान को ही अपने अँगूठे के नीचे दबाया था।2 अँग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्राप्य को भी महान इंगलैण्ड द्वारा स्वैच्छिक अर्पण एवं सत्ता के हस्तान्तरण की भाँति इतिहास में दर्ज किया है। तथ्यों की हेरा-फेरी कर इतिहास की वस्तुगतता की बलि चढ़ाने वाले इतिहासकारों ने अनेक ऐतिहासिक तथ्यों को इसी भाँति तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है अतः इतिहास की सत्यता को इन कसौटियों पर अवश्य परखा जाना चाहिए कि इतिहास किसने लिखा ? कब लिखा गया ? किसके लिए लिखा गया ? और यह भी कि इतिहास किसी देशकाल की किन परिस्थितियों में लिखा गया ?
आदिवासी आन्दोलनों के संदर्भ में लिखित इतिहास में उपरोक्त प्रश्नों की निर्णायक प्रासंगिकता है क्योंकि इतिहास की आँख सत्ता द्वारा समर्थित आँकड़ों, सत्ता द्वारा प्रायोजित तथ्यों एवं सत्ता के प्रति निष्ठा की नीम रोशनी में समय को
1.कार्ल मार्क्स, नोट्स ऑन इण्डियन हिस्ट्री।
2.रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेशः खण्ड 2
देखती है जबकि चिरन्तन प्रतिपक्ष-साहित्य-की आँख जन के जीवन-मरण के प्रश्नों तथा संवेदना के धवल प्रकाश में समय को देखती है। साहित्य का विवेक ही यह समझ सकता है कि पेशेवर साहित्यकार किसी समय विशेष का इतिहास लिखता मात्र है परन्तु उस समय विशेष का ‘जन’ इतिहास बनाता है। उस समय विशेष का समाज इतिहास को जीता है।
पितरों-पुरखों को देवता मानकर पूजने वाले आदिवासी, जिनके आराध्य टीलों-ढूहों, खेतों की मेड़ों, शाल-सखुए की शाखाओं, वृक्ष के खोंढ़र या नदी-कछारों में बसते हैं, सभ्य संसार में असुर, जाहिल, गवाँर या अर्धमानुष माने जाते रहे हैं। प्राचीन भारत में आर्यों ने, मध्यकाल में मुगलों-रजवाड़ों ने तथा आधुनिक भारत में अँग्रेजों एवं अँग्रेज समर्थक प्रभु वर्ग ने आदिवासियों की पारम्परिक शासन-प्रणाली, सामाजिक संरचना, अर्थ व्यवस्था तथा सांस्कृतिक-धार्मिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट किया।
भारत के अँग्रेजी राज में ईसाई मिशनरियों ने यहाँ के आदिवासियों को दया का पात्र माना भी तो आदिवासियों को सभ्य बनाने की भी शर्त रखी गयी-धर्मान्तरण। यह विद्रोही आदिवासी समाज और अँग्रेजी सत्ता के बीच दौत्य सम्बन्ध बनाने की कूटनीति भी थी। रंगभेद की इसी नीति के कारण सभ्य समाज के मुक्तिकामी संघर्ष क्रान्तियाँ कहलाए जबकि आक्रान्ताओं से अनवरत संघर्षरत आदिवासियों की रक्तरंजित क्रान्तियाँ भी ‘वनमानुषों का विद्रोह’ के खाते में दर्ज की जाती रहीं।
अँग्रेजी व्यवस्था और प्रशासन के इस उपेक्षापूर्ण-उत्तरदायित्वहीन दृष्टिकोण ने इतिहास को भी विकृत किया है। फलस्वरूप विभिन्न इतिहासकारों के समक्ष ‘सन्ताल हूल’ के घटनाक्रम को भी भिन्न-भिन्न क्रम में दर्ज करने की विवशता हुई। गड्ड-मड्ड तथ्यों के कारण ‘सन्ताल हूल’ की तिथियों में किसिम-किसिम के विरोधाभास देखे जा सकते हैं।
जुलाई 1855 के बाद ‘हूल’ प्रभावित क्षेत्रों में घटनाचक्र इतनी तीव्रता से घूमने लगा था कि आन्दोलन की गतिविधियों को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करना कठिन है। एक ही दिन..एक ही समय में सन्तालों के अनेक दस्ते सक्रिय थे। सिदो-कान्हू प्रातः जहाँ देखे जाते थे, रात को वहाँ से सौ मील दूर उपस्थित होते थे। ‘हूल’ के आक्रामक अभियानों और गतिविधियों की त्वरा के कारण शोध के विभिन्न निष्कर्षों तक में मतभिन्नता देखी जा सकती है और प्रश्न खड़े करने पर शोधार्थियों की विवश चुप्पी का कारण भी समझा जा सकता है।
‘बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान’ से प्रकाशित पुस्तक ‘सन्ताल हूलः इन्सरेक्शन ऑफ सन्ताल-1855’ (डॉ. एस.पी. सिन्हा) के अनुसार 7 जुलाई 1855 को दीघी के नायब सजवाल महेशलाल दत्त की हत्या के बाद सीदो मुरमू राजमहल जा पहुँचा। दूसरी ओर ‘सन्ताल अकादमी सिदो-कान्हू विश्वविद्यालय दुमका’ से प्रकाशित शोध पुस्तक ‘सन्ताल विद्रोह-1855 : एक दृष्टिकोण’ (मो. रियाज हुसैन उर्फ ‘जू साहब) के अनुसार महेशलाल दत्त की हत्या के बाद सिदो मुरमू गोड्डा, फुदकीपुर, कदमासार, रघुनाथपुर, प्यालापुर और कहलगाँवा होता हुआ राजमहल पहुँचा।
पहले तो स्थानीय थानों और जमींदारों से मिलकर सन्ताल आन्दोलन के प्रारम्भिक उफान को अपने स्तर पर ही कुचल डालने के प्रयास किये परन्तु जब स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर होने लगीं तो सहायतार्थ राजमहल, भागलपुर या देवघर में गुहार लगायी जाने लगी। अपनी गर्दनें बचाने हेतु थानों के नायब सजवालों ने सप्ताह भर पुरानी आगजनी या लूट को बाद की तिथियों में ताजा काण्डों की भाँति दर्ज कर अपनी अक्षमता को छुपाने के भी प्रयास किये। झूठी सूचनाएँ भेजी जाने लगीं।1
अँग्रेजी व्यवस्था के पास सिदो, कान्हू चाँद या भैरव की कोई स्पष्ट पहचान नहीं थी। रात्रिकालीन आक्रमणों से आतंकित जमींदारों और गुरिल्ला हमलों से भ्रमित पुलिस ने चारों भाइयों की पहचान गड्ड-मड्ड कर एक के कृत्य को किसी तीसरे के सिर भी मढ़ डाला।
सम्प्रति सन्ताल आन्दोलन के नायकों की जन्म तिथि भी सर्वमान्य रूप से स्थापित नहीं की जा सकी है। माना गया है कि ‘हूल’ के समय भैरव की आयु बीस वर्ष थी अतः जन्म ई. सन् 1835 में हुआ। भैरव से दस वर्ष बड़े चाँद का जन्म सन् 1825, चाँद से पाँच वर्ष बड़े कान्हू का जन्म ई. 1820 तथा कान्हू से पाँच वर्ष बड़े सिदो का जन्म 1815 में हुआ। हालाँकि आदिवासी समाज में भाइयों की आयु में इतना-नपा तुला अन्तर प्रायः नहीं देखा जाता।
सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव की गिरफ्तारी या अन्त की सर्वमान्य तिथियाँ निर्धारित करना भी टेढ़ी खीर है। ‘बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी’ से प्रकाशित पुस्तक ‘झारखण्डः इतिहास एवं संस्कृति’ (डॉ. बालमुकुन्द वीरोत्तम) सिदो-कान्हू की गिरफ्तारी पर कोई प्रकाश नहीं डालती। दोनों भाइयों को बरहेट नामक स्थान पर फाँसी दिये जाने का उल्लेख भर इस पुस्तक में है।
‘स्वर्ण जयन्ती प्रकाशन, दिल्ली’ से प्रकाशित पुस्तक ‘भारत के किसान विद्रोहः 1850-1900’ (एल नटराजन) सिदो के अन्त के बारे में मौन हैं। कान्हू को फरवरी 1856 के तीसरे सप्ताह में गिरफ्तार तथा उपरबन्धा में फाँसी देने की बात अवश्य बताती है।
1.जे. सी. झा, कोल इन्सरेक्शन, पृ.167
मोहम्मद रियाज हुसैन ने सिदो को 20 नवम्बर 1855 को सोनापुर में गिरफ्तार तथा कान्हू को उपरबन्धा में (तिथि नहीं दी) गिरफ्तार बताया है। उनके शोध के अनुसार सिदो को 5 फरवरी 1856 को बरहेट में तथा कान्हू को 20 दिसम्बर 1855 को उपरबन्धा में फाँसी दी गयी।
डॉ. एस. पी. सिन्हा ने सिदो को 24 जुलाई 1855 को गिरफ्तार लिखा है। कान्हू को वे फरवरी 1856 को किसी तिथि को गिफ्तार हुआ बताते हैं परन्तु दोनों भाइयों के अन्त को लेकर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। अतः अपनी पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट करते हैं कि..‘सिदो और कान्हू (लड़ते हुए) मारे गये या उन्हें फाँसी पर लटकाया गया, इस बात पर बहस अभी बाकी है।’
उपर्युक्त तिथियों में विरोधाभास अवश्य है परन्तु यह भी निश्चित है कि ऐतिहासिक सत्य इन्हीं तिथियों के बीच कहीं है।
‘सन्ताल हूल’ की औपन्यासिक सम्भावनाओं को टटोलते हुए विवादास्पद तिथियों का औपन्यासिक संयोजन करते हुए मैंने घटनाक्रम की ऐतिहासिकता को यथासम्भव बनाए रखने का प्रयास किया है परन्तु उपन्यास में इतिहास की विश्वनीयता को भी बनाए रखने का प्रयास भी किया है।
वे, जो इस पुस्तक के पन्नों से गुजरने वाले हैं उन्हें बताना आवश्यक लगता है कि प्रस्तुत उपन्यास किसी इतिहास का पुनर्लेखन कतई नहीं है। कभी किसी पुराने टीले या वर्षों से परती पड़े खेत की खुदाई-जुताई करते हुए ज्यों मिलने लगती हैं पुराकालीन धरोहरें, चूड़ियों के टुकड़े, शिलालेख, अंग-भंग प्रतिमाएँ, मृदभाण्डों के अवशेष, पुरानी साबुत ईंटे या अस्थियों के अश्म...। कुछ इसी प्रकार इस आख्यान में इतिहास के जीवाश्म बिखरे मिलेंगे..प्रचुर मात्रा में।
साहित्य में इतिहास बिलकुल उसी रूप में उपस्थित होने का हठ करता भी नहीं, जैसा शुद्ध इतिहास की पुस्तकों में पेशेवर इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। साहित्य में उपस्थित होने वाला इतिहास क्षेत्र विशेष के जन की स्मृतियों में भी नयी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित-संरक्षित होता है। यह इतिहास उसी मिट्टी के जन-जीवन से जुड़ी आस्थाओं, विश्वासों, लोककथाओं, दन्तकथाओं, किंवदन्तियों, लोकगीतों एवं ग्राम्य सरोकारों के रसायन से जन के हृदय एवं मस्तिष्क में लिखा होता है।..और तब इतिहास को पढ़ने की प्रविधियाँ भी भिन्न हो जाती हैं। शुद्ध इतिहास के ग्रन्थों में अतीत को उसकी अकादमिक तथ्यपरकता के दर्पण में पढ़ा जाता है जबकि बीते समय को साहित्य में उसकी जीवन्त कथ्यपरकता के प्रवाह के साथ पढ़ा जाता है।
आदिवासी आन्दोलनों के उपलब्ध दस्तावेज साक्ष्य हैं कि बिखरी शक्ति के कारण अनेक आदि वासी क्रान्तियाँ बर्बरतापूर्वक कुचल डाली गयीं। कुछ क्रान्ति-पुरुषों ने इतिहास के पृष्ठों पर अपने लिए स्थान छीने परन्तु अनेक लड़ाके ऐसे भी थे जो नायक न बन सके। अपने नायकों के नेतृत्व में मरणान्तक लड़ाइयाँ लड़ते हुए न्यौछावर हो गये।
कुछ ऐसे भी युवा, जो प्रारम्भ में अकेले पड़ जाने के भय से अकेली लड़ाई लड़ने का साहस न जुटा सके परन्तु अपने बलिदानी पुरखों से प्रेरित होकर अन्ततः जब प्रतिरोध का साहस बटोर कर उठ खड़े हुए तो दीपक की अन्तिम लौ की भाँति भभककर बुझ गये।
इतिहास की आँखों से ओझल रही ऐसी अकेली लड़ाइयाँ लड़ने वाले लड़ाकों के नाम इतिहास में नहीं हैं। प्रस्तुत उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र हारिल मुरमू का नाम भी किसी इतिहास में नहीं है जो अपनी मानवीय संवेदनाओं, दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, प्रेम-घृणा, पलायन-प्रतिशोध तथा संघर्ष और अमर्ष के साथ ‘सन्ताल हूल’ से आजादी की पहली लड़ाई तक की यात्रा करता है।
हारिल मुरमू का नाम इतिहास में भले न दर्ज हो परन्तु ‘सन्ताल हूल’ में हारिल मुरमू जैसे सैकड़ों गुप्तचर थे जिन्होंने अन्ततः तीर-धनुष भी उठाए, लड़े और शहीद हुए। इसके साक्ष्य इतिहास में अवश्य मिलते हैं।
उधवानाला के यु्द्ध में मेजर एडम्स ने नवाब मीर कासिम अली को पराजित कर झारखण्ड (तत्कालीन ‘जंगल तराई’) क्षेत्र में, ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
ईस्वी सन् 1765...
इंगलैण्ड की ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ ने शाह आलम द्वितीय से बंगाल और ओड़िसा की दीवानी हस्तगत कर ली। अब वर्तमान बिहार झारखण्ड भी तत्कालीन कम्पनी सरकार के अन्तर्गत कर चुकाने वाले राज्य बन गये।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी अभियान का नियमित प्रारम्भ ई. सन् 1857 से हुआ, इसे किताबी इतिहासकारों ने भी मान्यता दे दी है। गैर-सांस्थानिक इतिहासकारों ने भी सन् सत्तावन की देशव्यापी घटनाओं की विधिवत् पड़ताल करके इस काल के जनविद्रोही चरित्र को उभारा, परन्तु भारत का आदिवासी समाज जो भारत में अँग्रेजी राज्य तथा अँग्रेजों द्वारा पोषित जमींदारों-साहूकारों के विरुद्ध ई. सन् 1781 से ही अनवरत संघर्षरत रहा, उनका मुक्तिकामी संघर्ष अभी भी इतिहास के पृष्ठों पर ‘विद्रोह’ के रूप में ही दर्ज है।
ई. सन् 1781 में तिलिका माँझी ने अँग्रेजी राज को अमान्य कर आन्दोलन किया। स्थायी बन्दोबस्ती के छलना के बाद वनवासियों का आक्रोश ई. सन् 1798 में ‘तमाड़ विद्रोह’ के रूप में फूटा। तमाड़ में ही ई. सन् 1800 में दुखन माँझी तथा पुनः तमाड़ में ही ई. सन् 1819 में रुदन-कोंता मुण्डा के नेतृत्व में आन्दोलन हुए। ई. सन् 1831 में सिंहभूम में बिन्दराई-सिंगराई मानकी के नेतृत्व में द्वितीय ‘कोल विद्रोह’ और फिर ई. सन् 1855 में सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव मुर्मू नामक चार सहोदर सन्तालों की अगुआई में महान सन्ताल क्रान्ति ‘हूल’ का नगाड़ा बजा। उपरोक्त महत्त्वपूर्ण आन्दोलनों के अतिरिक्त भी कई अन्य छोटे-मोटे चक्रवात उठे जो अल्पकालिक तथा अल्पप्रभावी रहे। ध्यातव्य है कि उपर्युक्त कथित ‘विद्रोहों’ का समय ई. सन् 1857 के पूर्व का था।
हारे हुए युद्ध से उबरा योद्धा अपने भीतर पुनः पुनः युद्धरत होने का साहस बचाए रख पाता है तो यह आन्तरिक विजय भी एक उपलब्धि होती है जो भविष्य की लड़ाइयों का पाथेय बन जाती है। झारखण्ड के आदि निवासियों ने अपने मन को जीता और अपनी संघर्षशील चेतना को संरक्षित रखा, जिसके साक्ष्य ई. सन् 1781 के ‘पहाड़िया विद्रोह’ से लेकर ई. सन् 1855 के ‘सन्ताल हूल’ तक ही नहीं, वरन् सन् सत्तावन के राष्ट्र व्यापी स्वाधीनता संग्राम...और आगे सन् 1900 में बिरसा मुण्डा के महाविद्रोह के ‘उलगुलान’ तक मिलते हैं।
उपर्युक्त आदिवासी (कथित) विद्रोहों के नायक ऐसे राजे-रजवाड़े नहीं थे जो अपने राज्य की रक्षा हेतु तलवारे तब लेकर उठे जब अँग्रेजों की हड़प नीति ने एक-एक कर उनके सिंहासनों को निगलना प्रारम्भ कर दिया। इनमें से कई रियासतें तो ऐसी भी थीं (हैदराबाद के निजाम, अवध के नवाब, बाजीराव पेशवा आदि-आदि), जिन्होंने अँग्रेजों से सहायक मैत्री (सबसिडियरी एलायंस) की आत्मछलना का शिकार होकर अँग्रेजी सत्ता के समक्ष घुटने टेके और जब ‘वेलेस्ली’ (गवर्नर जनरल, भारत, 1798-1828) ने उनकी पसलियों में मीठी छुरी मूठ तक उतारी तब तक लम्बे समय तक म्यान में सोयी-अलसायी अदूरदर्शी तलवारों में जंग लग चुकी थी।
सन् सत्तावन के पूर्व के झारखण्डी आन्दोलनों के नायक वे आदि विद्रोही थे जिनके जल-जंगल-जमीन के नैसर्गिक अधिकारों से उन्हें लगातार बेदखल किया जाता रहा था। अँग्रेज-जमींदार-साहूकार के त्रिगुट ने वस्तुतः वनपुत्रों को उनके जीने के प्राकृतिक अधिकार तक से वंचित कर रखा था।
इंगलैण्ड के ‘जेम्स द्वितीय’ की सत्ता को चुनौती दी गयी तो इसे इंगलैण्ड की महान क्रान्ति (ई. सन् 1688) कहा गया। ब्रितानी दासता के विरुद्ध अमरीकी स्वतंत्रता संग्राम के उदय को ‘ बोस्टन-टी-पार्टी’ (ई. सन् 1773) जैसा सभ्य-शिष्ट नाम दिया गया। ‘लुई सोलहवें’ के विरुद्ध भूमिहीन किसानों-बेरोजगारों ने ‘फ्रांसीसी क्रान्ति’ (ई. सन् 1789) का शंख फूँका। साम्राज्यवादी सत्ता के विरुद्ध चीन में ‘चीनी क्रान्ति’ (ई. सन् 1911) हुई। रूस के जार ‘निकोलस द्वितीय’ के विरुद्ध कृषकों-श्रमिकों का जनान्दोलन ‘रूसी क्रान्ति’ (ई. सन् 1917) के नाम से इतिहास में दर्ज किया जाता है परन्तु..साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों-निम्नमध्यमवर्गीय आम भारतीय जन-द्वारा क्रान्ति (रिवोल्यूशन) के लिए ‘सैन्य द्रोह’ (म्यूटिनी) की शब्दछलना गढ़ी जाती है। पश्चिम के आन्दोलन ‘द्रोह’ नहीं क्रान्तियाँ थीं, परन्तु अपनी भूमि, वन एवं स्वशासन के आदिम अधिकारों की वापसी हेतु झारखण्ड के वनपुत्रों के मुक्तिकामी संघर्षों को ‘विद्रोह‘ (रिवोल्ट) की संज्ञा दी जाती है। इतिहास की एक विडम्बना यह भी कि अँग्रेजों तथा अँग्रेज समर्थक देसी शोषकों के विरुद्ध मरणान्तक लड़ाई लड़ने वाले महानायक बिरसा मुण्डा (ई. सन् 1856-1900) तक को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता।
भारत में अँग्रेजी सत्ता स्थापित होते ही गुलाम भारत के इतिहास को स्वामी इंगलैण्ड के इतिहास का एक परिशिष्ट मात्र बना डाला गया...और दासों के अतीत को गौरावान्वित नहीं किया जाता। पूर्व के शासकों ने भी अपने कृत्यों को उपकार की भाँति महिमाण्डित करने हेतु इतिहास का उपयोग किया है। जिस प्रकार भारत के ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ को इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह’ कहकर उसके परिप्रेक्ष्य को सीमित करने के प्रयास किये थे ताकि इस भारतीय क्रान्ति को ‘विद्रोह’ की यूरोपीय परिभाषा में सीमित किया जा सके, उसी प्रकार ‘सन्ताल विद्रोह’ की संज्ञा भी एक जनक्रान्ति के परिप्रेक्ष्य को संकुचित कर उसके व्यापक स्वरूप को कुचलने का ही उपक्रम था।
सन्ताल आन्दोलन ‘हूल’ कोई विद्रोह मात्र नहीं था वरन् अपनी अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति के लिए वनपुत्रों का मुक्तिकामी संघर्ष था। सन्तालों की यह क्रान्ति अँग्रेजों को भारत से भगाने की प्रथम जनक्रान्ति थी1 और इस व्यापक जनक्रान्ति में नेतृत्व भले सन्तालों ने किया था परन्तु सक्रिय भूमिका समस्त वनवासी जातियों-गोत्रों के साथ-साथ गैर-आदिवासी समाज ने भी निभायी थी। अँग्रेजों की सत्ता को तीरों पर तौलने वाले वनचरों ने निर्णायक न सही, परन्तु अनेक अवसरों पर अँग्रेजों को करारी मात भी दी थी।
इतिहास सदैव सत्य नहीं कहता। सिकन्दर, जो यूनानी नहीं था, वरन् मकदुनियाँ का वासी था, यूरोपीय इतिहासकारों ने उसे यूनानी बना डाला जबकि सिकन्दर ने सर्वप्रथम यूनान को ही अपने अँगूठे के नीचे दबाया था।2 अँग्रेज इतिहासकारों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्राप्य को भी महान इंगलैण्ड द्वारा स्वैच्छिक अर्पण एवं सत्ता के हस्तान्तरण की भाँति इतिहास में दर्ज किया है। तथ्यों की हेरा-फेरी कर इतिहास की वस्तुगतता की बलि चढ़ाने वाले इतिहासकारों ने अनेक ऐतिहासिक तथ्यों को इसी भाँति तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है अतः इतिहास की सत्यता को इन कसौटियों पर अवश्य परखा जाना चाहिए कि इतिहास किसने लिखा ? कब लिखा गया ? किसके लिए लिखा गया ? और यह भी कि इतिहास किसी देशकाल की किन परिस्थितियों में लिखा गया ?
आदिवासी आन्दोलनों के संदर्भ में लिखित इतिहास में उपरोक्त प्रश्नों की निर्णायक प्रासंगिकता है क्योंकि इतिहास की आँख सत्ता द्वारा समर्थित आँकड़ों, सत्ता द्वारा प्रायोजित तथ्यों एवं सत्ता के प्रति निष्ठा की नीम रोशनी में समय को
1.कार्ल मार्क्स, नोट्स ऑन इण्डियन हिस्ट्री।
2.रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेशः खण्ड 2
देखती है जबकि चिरन्तन प्रतिपक्ष-साहित्य-की आँख जन के जीवन-मरण के प्रश्नों तथा संवेदना के धवल प्रकाश में समय को देखती है। साहित्य का विवेक ही यह समझ सकता है कि पेशेवर साहित्यकार किसी समय विशेष का इतिहास लिखता मात्र है परन्तु उस समय विशेष का ‘जन’ इतिहास बनाता है। उस समय विशेष का समाज इतिहास को जीता है।
पितरों-पुरखों को देवता मानकर पूजने वाले आदिवासी, जिनके आराध्य टीलों-ढूहों, खेतों की मेड़ों, शाल-सखुए की शाखाओं, वृक्ष के खोंढ़र या नदी-कछारों में बसते हैं, सभ्य संसार में असुर, जाहिल, गवाँर या अर्धमानुष माने जाते रहे हैं। प्राचीन भारत में आर्यों ने, मध्यकाल में मुगलों-रजवाड़ों ने तथा आधुनिक भारत में अँग्रेजों एवं अँग्रेज समर्थक प्रभु वर्ग ने आदिवासियों की पारम्परिक शासन-प्रणाली, सामाजिक संरचना, अर्थ व्यवस्था तथा सांस्कृतिक-धार्मिक ताने-बाने को नष्ट-भ्रष्ट किया।
भारत के अँग्रेजी राज में ईसाई मिशनरियों ने यहाँ के आदिवासियों को दया का पात्र माना भी तो आदिवासियों को सभ्य बनाने की भी शर्त रखी गयी-धर्मान्तरण। यह विद्रोही आदिवासी समाज और अँग्रेजी सत्ता के बीच दौत्य सम्बन्ध बनाने की कूटनीति भी थी। रंगभेद की इसी नीति के कारण सभ्य समाज के मुक्तिकामी संघर्ष क्रान्तियाँ कहलाए जबकि आक्रान्ताओं से अनवरत संघर्षरत आदिवासियों की रक्तरंजित क्रान्तियाँ भी ‘वनमानुषों का विद्रोह’ के खाते में दर्ज की जाती रहीं।
अँग्रेजी व्यवस्था और प्रशासन के इस उपेक्षापूर्ण-उत्तरदायित्वहीन दृष्टिकोण ने इतिहास को भी विकृत किया है। फलस्वरूप विभिन्न इतिहासकारों के समक्ष ‘सन्ताल हूल’ के घटनाक्रम को भी भिन्न-भिन्न क्रम में दर्ज करने की विवशता हुई। गड्ड-मड्ड तथ्यों के कारण ‘सन्ताल हूल’ की तिथियों में किसिम-किसिम के विरोधाभास देखे जा सकते हैं।
जुलाई 1855 के बाद ‘हूल’ प्रभावित क्षेत्रों में घटनाचक्र इतनी तीव्रता से घूमने लगा था कि आन्दोलन की गतिविधियों को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करना कठिन है। एक ही दिन..एक ही समय में सन्तालों के अनेक दस्ते सक्रिय थे। सिदो-कान्हू प्रातः जहाँ देखे जाते थे, रात को वहाँ से सौ मील दूर उपस्थित होते थे। ‘हूल’ के आक्रामक अभियानों और गतिविधियों की त्वरा के कारण शोध के विभिन्न निष्कर्षों तक में मतभिन्नता देखी जा सकती है और प्रश्न खड़े करने पर शोधार्थियों की विवश चुप्पी का कारण भी समझा जा सकता है।
‘बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान’ से प्रकाशित पुस्तक ‘सन्ताल हूलः इन्सरेक्शन ऑफ सन्ताल-1855’ (डॉ. एस.पी. सिन्हा) के अनुसार 7 जुलाई 1855 को दीघी के नायब सजवाल महेशलाल दत्त की हत्या के बाद सीदो मुरमू राजमहल जा पहुँचा। दूसरी ओर ‘सन्ताल अकादमी सिदो-कान्हू विश्वविद्यालय दुमका’ से प्रकाशित शोध पुस्तक ‘सन्ताल विद्रोह-1855 : एक दृष्टिकोण’ (मो. रियाज हुसैन उर्फ ‘जू साहब) के अनुसार महेशलाल दत्त की हत्या के बाद सिदो मुरमू गोड्डा, फुदकीपुर, कदमासार, रघुनाथपुर, प्यालापुर और कहलगाँवा होता हुआ राजमहल पहुँचा।
पहले तो स्थानीय थानों और जमींदारों से मिलकर सन्ताल आन्दोलन के प्रारम्भिक उफान को अपने स्तर पर ही कुचल डालने के प्रयास किये परन्तु जब स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर होने लगीं तो सहायतार्थ राजमहल, भागलपुर या देवघर में गुहार लगायी जाने लगी। अपनी गर्दनें बचाने हेतु थानों के नायब सजवालों ने सप्ताह भर पुरानी आगजनी या लूट को बाद की तिथियों में ताजा काण्डों की भाँति दर्ज कर अपनी अक्षमता को छुपाने के भी प्रयास किये। झूठी सूचनाएँ भेजी जाने लगीं।1
अँग्रेजी व्यवस्था के पास सिदो, कान्हू चाँद या भैरव की कोई स्पष्ट पहचान नहीं थी। रात्रिकालीन आक्रमणों से आतंकित जमींदारों और गुरिल्ला हमलों से भ्रमित पुलिस ने चारों भाइयों की पहचान गड्ड-मड्ड कर एक के कृत्य को किसी तीसरे के सिर भी मढ़ डाला।
सम्प्रति सन्ताल आन्दोलन के नायकों की जन्म तिथि भी सर्वमान्य रूप से स्थापित नहीं की जा सकी है। माना गया है कि ‘हूल’ के समय भैरव की आयु बीस वर्ष थी अतः जन्म ई. सन् 1835 में हुआ। भैरव से दस वर्ष बड़े चाँद का जन्म सन् 1825, चाँद से पाँच वर्ष बड़े कान्हू का जन्म ई. 1820 तथा कान्हू से पाँच वर्ष बड़े सिदो का जन्म 1815 में हुआ। हालाँकि आदिवासी समाज में भाइयों की आयु में इतना-नपा तुला अन्तर प्रायः नहीं देखा जाता।
सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव की गिरफ्तारी या अन्त की सर्वमान्य तिथियाँ निर्धारित करना भी टेढ़ी खीर है। ‘बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी’ से प्रकाशित पुस्तक ‘झारखण्डः इतिहास एवं संस्कृति’ (डॉ. बालमुकुन्द वीरोत्तम) सिदो-कान्हू की गिरफ्तारी पर कोई प्रकाश नहीं डालती। दोनों भाइयों को बरहेट नामक स्थान पर फाँसी दिये जाने का उल्लेख भर इस पुस्तक में है।
‘स्वर्ण जयन्ती प्रकाशन, दिल्ली’ से प्रकाशित पुस्तक ‘भारत के किसान विद्रोहः 1850-1900’ (एल नटराजन) सिदो के अन्त के बारे में मौन हैं। कान्हू को फरवरी 1856 के तीसरे सप्ताह में गिरफ्तार तथा उपरबन्धा में फाँसी देने की बात अवश्य बताती है।
1.जे. सी. झा, कोल इन्सरेक्शन, पृ.167
मोहम्मद रियाज हुसैन ने सिदो को 20 नवम्बर 1855 को सोनापुर में गिरफ्तार तथा कान्हू को उपरबन्धा में (तिथि नहीं दी) गिरफ्तार बताया है। उनके शोध के अनुसार सिदो को 5 फरवरी 1856 को बरहेट में तथा कान्हू को 20 दिसम्बर 1855 को उपरबन्धा में फाँसी दी गयी।
डॉ. एस. पी. सिन्हा ने सिदो को 24 जुलाई 1855 को गिरफ्तार लिखा है। कान्हू को वे फरवरी 1856 को किसी तिथि को गिफ्तार हुआ बताते हैं परन्तु दोनों भाइयों के अन्त को लेकर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते। अतः अपनी पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट करते हैं कि..‘सिदो और कान्हू (लड़ते हुए) मारे गये या उन्हें फाँसी पर लटकाया गया, इस बात पर बहस अभी बाकी है।’
उपर्युक्त तिथियों में विरोधाभास अवश्य है परन्तु यह भी निश्चित है कि ऐतिहासिक सत्य इन्हीं तिथियों के बीच कहीं है।
‘सन्ताल हूल’ की औपन्यासिक सम्भावनाओं को टटोलते हुए विवादास्पद तिथियों का औपन्यासिक संयोजन करते हुए मैंने घटनाक्रम की ऐतिहासिकता को यथासम्भव बनाए रखने का प्रयास किया है परन्तु उपन्यास में इतिहास की विश्वनीयता को भी बनाए रखने का प्रयास भी किया है।
वे, जो इस पुस्तक के पन्नों से गुजरने वाले हैं उन्हें बताना आवश्यक लगता है कि प्रस्तुत उपन्यास किसी इतिहास का पुनर्लेखन कतई नहीं है। कभी किसी पुराने टीले या वर्षों से परती पड़े खेत की खुदाई-जुताई करते हुए ज्यों मिलने लगती हैं पुराकालीन धरोहरें, चूड़ियों के टुकड़े, शिलालेख, अंग-भंग प्रतिमाएँ, मृदभाण्डों के अवशेष, पुरानी साबुत ईंटे या अस्थियों के अश्म...। कुछ इसी प्रकार इस आख्यान में इतिहास के जीवाश्म बिखरे मिलेंगे..प्रचुर मात्रा में।
साहित्य में इतिहास बिलकुल उसी रूप में उपस्थित होने का हठ करता भी नहीं, जैसा शुद्ध इतिहास की पुस्तकों में पेशेवर इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। साहित्य में उपस्थित होने वाला इतिहास क्षेत्र विशेष के जन की स्मृतियों में भी नयी पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित-संरक्षित होता है। यह इतिहास उसी मिट्टी के जन-जीवन से जुड़ी आस्थाओं, विश्वासों, लोककथाओं, दन्तकथाओं, किंवदन्तियों, लोकगीतों एवं ग्राम्य सरोकारों के रसायन से जन के हृदय एवं मस्तिष्क में लिखा होता है।..और तब इतिहास को पढ़ने की प्रविधियाँ भी भिन्न हो जाती हैं। शुद्ध इतिहास के ग्रन्थों में अतीत को उसकी अकादमिक तथ्यपरकता के दर्पण में पढ़ा जाता है जबकि बीते समय को साहित्य में उसकी जीवन्त कथ्यपरकता के प्रवाह के साथ पढ़ा जाता है।
आदिवासी आन्दोलनों के उपलब्ध दस्तावेज साक्ष्य हैं कि बिखरी शक्ति के कारण अनेक आदि वासी क्रान्तियाँ बर्बरतापूर्वक कुचल डाली गयीं। कुछ क्रान्ति-पुरुषों ने इतिहास के पृष्ठों पर अपने लिए स्थान छीने परन्तु अनेक लड़ाके ऐसे भी थे जो नायक न बन सके। अपने नायकों के नेतृत्व में मरणान्तक लड़ाइयाँ लड़ते हुए न्यौछावर हो गये।
कुछ ऐसे भी युवा, जो प्रारम्भ में अकेले पड़ जाने के भय से अकेली लड़ाई लड़ने का साहस न जुटा सके परन्तु अपने बलिदानी पुरखों से प्रेरित होकर अन्ततः जब प्रतिरोध का साहस बटोर कर उठ खड़े हुए तो दीपक की अन्तिम लौ की भाँति भभककर बुझ गये।
इतिहास की आँखों से ओझल रही ऐसी अकेली लड़ाइयाँ लड़ने वाले लड़ाकों के नाम इतिहास में नहीं हैं। प्रस्तुत उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र हारिल मुरमू का नाम भी किसी इतिहास में नहीं है जो अपनी मानवीय संवेदनाओं, दुःख-सुख, हर्ष-विषाद, प्रेम-घृणा, पलायन-प्रतिशोध तथा संघर्ष और अमर्ष के साथ ‘सन्ताल हूल’ से आजादी की पहली लड़ाई तक की यात्रा करता है।
हारिल मुरमू का नाम इतिहास में भले न दर्ज हो परन्तु ‘सन्ताल हूल’ में हारिल मुरमू जैसे सैकड़ों गुप्तचर थे जिन्होंने अन्ततः तीर-धनुष भी उठाए, लड़े और शहीद हुए। इसके साक्ष्य इतिहास में अवश्य मिलते हैं।
तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-तहाँ
या दबी हुई चीख का अहसास हो
समझना हम वहीं मौजूद थे।
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-तहाँ
या दबी हुई चीख का अहसास हो
समझना हम वहीं मौजूद थे।
विजयदेव नारायण साही
जो इतिहास में नहीं है
हिहिड़ी-पिपिड़ी रेबोन जानाम लेन
खोज कामान रेबोन खोज लेन
हराराता बुरू रेबोन खोजलोन
सासाङ बेड़ा रेबोन जात लेना1
हिहिड़ी-पिपिड़ी रेबोन जानाम लेन
खोज कामान रेबोन खोज लेन
हराराता बुरू रेबोन खोजलोन
सासाङ बेड़ा रेबोन जात लेना1
...और जब हाँस-हाँसिल के अण्डों से उत्पन्य वंश का युवक हारिल मुरमू लाली
के साथ शत्रुओं से घिर गया तो हारिल और लाली की आत्माएँ हारिल पक्षी के
जोड़े का रूप धरकर उड़ गयीं। असीम व्योम में उड़ान भरता पक्षी युगल बादलों
के पार चला गया। धरती पर रह गयी हारिल-लाली की आलिंगनबद्ध देह जो आग्नेय
पत्थर की प्रतिमाओं में बदल चुकी थी।
झारखण्ड-छत्तीसगढ़ के सीमान्त पर, अरण्य में अब भी आलिंगनबद्ध युगल की शैलाकृति है। उपर्युक्त दन्तकथा के आधार पर, लोकमान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के मिलन के महान आदिवासी वसन्तोत्सव पर्व ‘सरहुल’ की रात में इस कृष्णवर्ण शैलाकृति पर चिंया (इमली के बीज ) घिसकर पीने से मनचाहा जीवन-साथी मिलता है। मनोवांछित सन्तान की प्राप्ति होती है। अन्न, धन एवं पशु सुरक्षित रहते हैं। रोग, शोक, दुःख, ताप आदि दूर रहते हैं। ‘बुरी छायाएँ’ सिर के आकाश पर तैरने से परहेज रखती हैं।
1.सन्ताल जाति की उत्पप्ति हाँस-हाँसिल नामक पक्षी-युगल के अण्डे से ‘हिहिड़ी–पिपिड़ी’ नामक किसी स्थान पर हुई। ‘खोज कामान’ में आकर सन्तालों को उनकी पहचान मिली।’ ‘हराराता’ के पहाड़ों में सन्तालों के आदिपुरूष ‘पिलचु हड़ाम’ तथा आदि नारी ‘पिलचु बूढ़ी ने वंशवृद्धि की। ‘सासाङ बेड़ा’ नामक स्थान पर पहुँचकर सन्ताल जाति का विभिन्न गोत्रों में विभाजन हुआ।(-एक पौराणिक सन्ताली कथा)
झारखण्ड-छत्तीसगढ़ के सीमान्त पर, अरण्य में अब भी आलिंगनबद्ध युगल की शैलाकृति है। उपर्युक्त दन्तकथा के आधार पर, लोकमान्यता है कि सूर्य और पृथ्वी के मिलन के महान आदिवासी वसन्तोत्सव पर्व ‘सरहुल’ की रात में इस कृष्णवर्ण शैलाकृति पर चिंया (इमली के बीज ) घिसकर पीने से मनचाहा जीवन-साथी मिलता है। मनोवांछित सन्तान की प्राप्ति होती है। अन्न, धन एवं पशु सुरक्षित रहते हैं। रोग, शोक, दुःख, ताप आदि दूर रहते हैं। ‘बुरी छायाएँ’ सिर के आकाश पर तैरने से परहेज रखती हैं।
1.सन्ताल जाति की उत्पप्ति हाँस-हाँसिल नामक पक्षी-युगल के अण्डे से ‘हिहिड़ी–पिपिड़ी’ नामक किसी स्थान पर हुई। ‘खोज कामान’ में आकर सन्तालों को उनकी पहचान मिली।’ ‘हराराता’ के पहाड़ों में सन्तालों के आदिपुरूष ‘पिलचु हड़ाम’ तथा आदि नारी ‘पिलचु बूढ़ी ने वंशवृद्धि की। ‘सासाङ बेड़ा’ नामक स्थान पर पहुँचकर सन्ताल जाति का विभिन्न गोत्रों में विभाजन हुआ।(-एक पौराणिक सन्ताली कथा)
1.1
तीखे फल वाला सन्नाता तीर भागते सूअर की गर्दन में आधी लम्बाई तक जा धँसा।
सूअर की गति निमिष भर को ठिठकी। कमर की ऊँचाई तक तड़पकर हवा में क्षण भर के लिए मानो टँग गया बाणबिद्ध सुअर।
हवा में ऐंठती देह भद्द से जमीन पर गिरी। भूमि पर गिरते ही कई तीर कमानों से ‘साँय-साँय’ करते छूटे। सूअर की देह छलनी हो गयी। रक्त की धार से भीगने लगी बाघामुण्डी गाँव की माटी।
‘‘हे रे माँझी1ऽऽऽ’’ नारी कण्ठ से निकली हाँक ने गाँव को रोमांचित कर दिया, ‘‘कहाँ मर गया रे नायके2 ? रेऽऽऽ चूल्हा में घुस गया का रे परगनैत3...?’’
बिछिया की कर्कश आवाज असंख्य सूर्य-रश्मियों की भाँति गाँव के पात-पात पर बिखर गयी। बिछिया की सहेलियों ने भी अपने हथियार तौले। पुतली, दुधिया, बरमी, मकइया, लाली, सोनारी...! शिकारिनों की आँखे क्रोध से जल उठी थीं।
‘‘चल काट दे रे...!’’ बिछिया ने गर्जना की।
प्रलयंकारी बाढ़ की भाँति हहराती उराँव बालाओं की आखेटक टोली बाघामुण्डी गाँव में ताण्डव मचाने हेतु धँस पड़ी।
शिकारिनों की टोली का नेतृत्व करती बिछिया की रक्तिम आँखों में चढ़ गया था वह हृष्ट-पुष्ट सुअर जो अपने खोभाड़ में घुसने ही वाला था।
बिछिया के हाथ में धनुष था। तनी प्रत्यंचा पर चढ़ा था तीर। तीर पर कसी उँगलियों के ढीले पड़ते ही अग्निबाण की भाँति सन्नाता निकला था तीर और
1.गाँव का मुखिया।
2.गाँव का प्रधान पुजारी।
3.ग्राम-पंचायत का प्रधान।
सूअर की गर्दन में आधी लम्बाई तक जा धँसा था।
बाघामुण्डी गाँव में प्रारम्भ हो चुका था उराँव स्त्रियों का पर्व ‘जनीशिकार’। तीन सौ सालों से मानो कोई आँवा सुलग रहा था उराँव स्त्रियों के भीतर। अन्तर्मन में धुआँ-धुआँ होती कोई आग जीती रहती थी। हर बारहवें वर्ष इस आँच को धधकाने के लिए ही आता है यह आखेट पर्व ‘जनीशिकार’। एक युग की जमी राख की परतें बारहवें साल की वासन्ती बयार से उधियाने लगती हैं। राख की परतों के नीचे दबे सोये अंगारों को मानो नया जीवन मिल जाता है ‘जनीशिकार’ में ।
काल सर्वोत्तम मरहम है। समय बड़े-से-बड़े घाव को भर देता है। कठोर से कठोरतम आघात समय के साथ विस्मृत हो सकता है परन्तु हर कहावत, हरेक समाज के लिए, हर देशकाल का अन्तिम सत्य नहीं होती।
अपने विजय की स्मृतियाँ तो हर विजेता जाति सँजोती है। आने वाली पीढ़ियाँ पुरखों की जय को स्मरण करती हैं परन्तु बनैले आदिवासी अपने पराभव की स्मृति को भी आजीवन सँजोते हैं। पराजय के दंश को आजीवन अपनी देह पर धारण किये जीते हैं। धारण किये-ही मरते हैं।
उराँव जनजाति के पठारों पर पहुँचने से लेकर हारिल मुरमू के सुअर की गर्दन में तीर के धंसने तक के समय के बीच पसरा था एक लम्बा समय ! कई दिनों, कई महीनों, कई वर्षों और कई पीढ़ियों को निगल चुके अजगर जैसा समय। तीन सौ सत्रह वर्ष लम्बा और बाघामुण्डी से गढ़ रोहतास तक चौड़ा...!
तीन सौ वर्षों का कालखण्ड कुछ कम नहीं होता। बड़े-से-बड़े समुद्र को छिछले कर सकते हैं तीन सौ वर्ष। जंगल की आग को राख के ढेर में बदल सकते हैं तीन सौ साल। परन्तु जंगल की यह आग थी जो उराँव स्त्रियों की छाती में सुलगती ही रही थी। विगत तीन सौ सत्रह वर्षों से।
यह आग थी उराँव जाति की पराजय की। यह अनल था उराँवों के किले रोहतास गढ़ के पतन का। उराँवों के पराभव और प्रतिशोध की इसी अग्नि में सूइयाँ तपाकर अपने चिबुक, ललाट या कनपटी पर गोदने की तीन बिदिंया धारण करती हैं उराँव लड़कियाँ ताकि हारे जा चुके अपने पुरखों के दुर्ग-रोहतास गढ़-की उस हारी हुई लड़ाई की कटु स्मृतियाँ धुँधली न पड़ जाएँ।
उराँव बालिकाओं की नसों में तप्त गोदने की सुइयों के दंश के साथ मानो उतारा जाता है प्रतिशोध का अर्क, जो आजीवन स्त्रियों की शिराओं-धमनियों में दौड़ता रहता है।
हर बारहवें वर्ष का फागुन उराँव समाज के लिए ‘जनीशिकार’ का महीना होता है। स्त्रियोचित वस्त्र और श्रृंगार तज कर पुरूषों का वेष धारण किये उराँव स्त्रियाँ परम्परागत अस्त्र-शस्त्रों के साथ पूरे बसन्त मृगया हेतु निकलती हैं। तीर-कमान, भाले-बरछी, कुल्हाड़ी और बलोया...! पुरूषों की ही भाँति आखेट करता फिरता है शिकारिनों का जत्था।
‘जनीशिकार’ कभी जंगल में होता था। घने जंगलों में धँस पड़ती थी शिकारिनें परन्तु अब जमींदारों ने अँग्रेज वनाधिकारियों के साथ साँठ-गाँठ कर जंगल में आदिवासियों के प्रवेश, आखेट एवं वनोपज एकत्र करने के आदिम अधिकारों पर पहरे बिठा दिये तो ‘जनीशिकार’ की परम्परा ही खतरे में पड़ गयी।
जमींदार अर्थात् आदिवासी बस्तियों का गोमके ! मालिक ! क्षेत्रपति ! क्षेत्र में कम्पनी सरकार का प्रतिनिधि !
शान्त सरल वनवासियों ने टकराव के बदले परिवर्तन की नीति अपनायी। परम्परा को संरक्षित रखने हेतु आवश्यक परिवर्तन। ‘जनीशिकार’ हेतु शिकारिनों के दल जंगल में जाने की जगह अब एक गाँव से दूसरे गाँव में जाने लगे।
पर्व-त्योहारों से ही नवजीवन पाते हैं वनवासी ! जीवन से जुड़े रहने की ललक...मनुष्य की जीवेष्णा हर अवरोध को अतिक्रमित कर सकती है। गाँवों के सहयोग और पंचायतों की सहभागिता ने ‘जनीशिकार’ को जीवित रखने की राह भी ढूँढ़ निकाली।
हर गाँव में एक मुखिया। दस, बीस या पचास गाँवों का एक परगना। परगना का प्रधान था परगनैत।
वसन्त आने से पूर्व बड़ी पंचायत जुड़ती। बड़ी पंचायत...‘लो-बिर-सेन्द्रा’ या ‘सेन्द्रा-दुरूप-ए’ ! इस बड़ी पंचायत में कई मुखिया और परगनैत मिल-बैठकर ‘जनीशिकार’ की योजना तैयार करते। शिकारिनों के लिए आखेट के मार्ग नियत किये जाते। बारी-बारी से हर गाँव के लिए तिथि नियत की जाती।
हर गाँव अपनी नियत तिथि को अन्य दूसरे गाँव के आगन्तुक शिकारिन दल का स्वागत करते। शिकारिनों का दल भी अपने पहुँचने की पूर्वसूचना भेजने की औपचारिकता अवश्य निभाता था।
गाँव का प्रधान पुजारी और मुखिया अतिथि शिकारिनों के लिए गाँव के पूरब में अखाड़ा तैयार कराते। शिकारिनों की अगवानी करने हेतु गाँव का प्रधान पुजारी गाँव के प्रवेश मार्ग पर उपस्थित होकर शिकारिनों का सम्मान करता था। एक गाँव से दूसरे गाँव तक...बारी-बारी से पहुँचता जाता ‘जनीशिकार’ का न्यौता जब तक हर उराँव गाँव ‘जनीशिकार’ का पर्व नहीं मना लेता। परगने के मुण्डा या सन्ताल गाँव भी उराँव गाँव की जनशिकरिनों को मान देते थे। पलाशखाँड़ गाँव की शिकारिनों का दल बिछिया की अगुआई में जब बाघामुण्डी के सीमान्त पर पहुँचा था तो उनकी आगवानी करने वाला नायके सीमान्त पर उपस्थित नहीं था। बिछिया ने दो दिन पूर्व ही धावे की सूचना भिजवायी थी फिर क्यों नहीं चेता था नायके ? गाँव के माँझी को भी तीज-त्योहार का डर नहीं रहा ?
उपेक्षा और अपमान से जनीशिकारिनों का रोआँ-रोआँ सुलगने लगा था। नायके नहीं आया न सही। न सही माँझी। जोग माँझी1 तो रहता। गोदेत2, परानिक3, या गुनी-गुरीब4 लोग तो आते सिवान पर जोहार करने।
जनीशिकार के दिन उराँव धाँगड़ियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं होतीं। वे असामान्य हो उठती हैं। युद्धरत योद्धा होती हैं। युद्ध को निकले वीरों के स्वागत हेतु प्रस्तुत न होना वीरों का घोर अपमान करना है। शिकारिनों का अपमान हुआ था। अपमान हुआ था एक परम्परा का। पुरखों का अपमान...।
शिकारिनों की प्रत्यंचाएँ भन्ना रही थीं। कमानों से निकल रहे थे तीर। बिंध रहे थे सूअर, बकरियाँ, छौने, मुर्गियाँ। जो पालतू पशु-पक्षी सामने दिख रहा था, मारा जा रहा था। अपने अपमान के बाद अब शिकारिनों को पूरी स्वतन्त्रता थी कि वे किसी के पालतू पशु-पक्षी को मार गिराएँ। संहार का उत्तरदायी था गाँव का नायके। गाँव की व्यवस्था। जनीशिकार के दल के इस परम्परागत सांस्कृतिक अधिकार को जंगल की किसी भी पंचायत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
गाँव के माँझी और नायके को ललकारती...फूहड़ गालियाँ देती...गाँव की अशिष्टता पर ग्रामवासियों को धिक्कारती, ....पूँछ पटकते, एड़ियाँ रगड़ते सूअर पर घृणा से थूककर आगे बढ़ती गयीं शिकारिनें।
अपनी झोंपड़ी के भीतर बैठा रहा हारिल मुरमू ! बाँस की पतली-पतली पट्टियों वाले दरवाजे के फँफारों से बाहर झाँकता रहा हारिल मुरमू। निरपराध सूअर मानवीय भूल का मूल्य चुका रहा था।
सूअर की दुम बार-बार ऐंठ कर फन्दे का आकार से रही थी, परन्तु देह की शक्ति चुक रही थी। धीरे-धीरे पूँछ का ऐंठना बन्द होने लगा। सूअर की पनियल आँखें पलटने लगीं। अपने पालतू सूअर को बाणविद्ध तड़पता देखता रहा विवश हारिल मुरमू।
1.उपमुखिया।
2.ग्रामदूत।
3.मुखिया का सेवक।
गाँव के प्रतिनिधि।
सूअर की गति निमिष भर को ठिठकी। कमर की ऊँचाई तक तड़पकर हवा में क्षण भर के लिए मानो टँग गया बाणबिद्ध सुअर।
हवा में ऐंठती देह भद्द से जमीन पर गिरी। भूमि पर गिरते ही कई तीर कमानों से ‘साँय-साँय’ करते छूटे। सूअर की देह छलनी हो गयी। रक्त की धार से भीगने लगी बाघामुण्डी गाँव की माटी।
‘‘हे रे माँझी1ऽऽऽ’’ नारी कण्ठ से निकली हाँक ने गाँव को रोमांचित कर दिया, ‘‘कहाँ मर गया रे नायके2 ? रेऽऽऽ चूल्हा में घुस गया का रे परगनैत3...?’’
बिछिया की कर्कश आवाज असंख्य सूर्य-रश्मियों की भाँति गाँव के पात-पात पर बिखर गयी। बिछिया की सहेलियों ने भी अपने हथियार तौले। पुतली, दुधिया, बरमी, मकइया, लाली, सोनारी...! शिकारिनों की आँखे क्रोध से जल उठी थीं।
‘‘चल काट दे रे...!’’ बिछिया ने गर्जना की।
प्रलयंकारी बाढ़ की भाँति हहराती उराँव बालाओं की आखेटक टोली बाघामुण्डी गाँव में ताण्डव मचाने हेतु धँस पड़ी।
शिकारिनों की टोली का नेतृत्व करती बिछिया की रक्तिम आँखों में चढ़ गया था वह हृष्ट-पुष्ट सुअर जो अपने खोभाड़ में घुसने ही वाला था।
बिछिया के हाथ में धनुष था। तनी प्रत्यंचा पर चढ़ा था तीर। तीर पर कसी उँगलियों के ढीले पड़ते ही अग्निबाण की भाँति सन्नाता निकला था तीर और
1.गाँव का मुखिया।
2.गाँव का प्रधान पुजारी।
3.ग्राम-पंचायत का प्रधान।
सूअर की गर्दन में आधी लम्बाई तक जा धँसा था।
बाघामुण्डी गाँव में प्रारम्भ हो चुका था उराँव स्त्रियों का पर्व ‘जनीशिकार’। तीन सौ सालों से मानो कोई आँवा सुलग रहा था उराँव स्त्रियों के भीतर। अन्तर्मन में धुआँ-धुआँ होती कोई आग जीती रहती थी। हर बारहवें वर्ष इस आँच को धधकाने के लिए ही आता है यह आखेट पर्व ‘जनीशिकार’। एक युग की जमी राख की परतें बारहवें साल की वासन्ती बयार से उधियाने लगती हैं। राख की परतों के नीचे दबे सोये अंगारों को मानो नया जीवन मिल जाता है ‘जनीशिकार’ में ।
काल सर्वोत्तम मरहम है। समय बड़े-से-बड़े घाव को भर देता है। कठोर से कठोरतम आघात समय के साथ विस्मृत हो सकता है परन्तु हर कहावत, हरेक समाज के लिए, हर देशकाल का अन्तिम सत्य नहीं होती।
अपने विजय की स्मृतियाँ तो हर विजेता जाति सँजोती है। आने वाली पीढ़ियाँ पुरखों की जय को स्मरण करती हैं परन्तु बनैले आदिवासी अपने पराभव की स्मृति को भी आजीवन सँजोते हैं। पराजय के दंश को आजीवन अपनी देह पर धारण किये जीते हैं। धारण किये-ही मरते हैं।
उराँव जनजाति के पठारों पर पहुँचने से लेकर हारिल मुरमू के सुअर की गर्दन में तीर के धंसने तक के समय के बीच पसरा था एक लम्बा समय ! कई दिनों, कई महीनों, कई वर्षों और कई पीढ़ियों को निगल चुके अजगर जैसा समय। तीन सौ सत्रह वर्ष लम्बा और बाघामुण्डी से गढ़ रोहतास तक चौड़ा...!
तीन सौ वर्षों का कालखण्ड कुछ कम नहीं होता। बड़े-से-बड़े समुद्र को छिछले कर सकते हैं तीन सौ वर्ष। जंगल की आग को राख के ढेर में बदल सकते हैं तीन सौ साल। परन्तु जंगल की यह आग थी जो उराँव स्त्रियों की छाती में सुलगती ही रही थी। विगत तीन सौ सत्रह वर्षों से।
यह आग थी उराँव जाति की पराजय की। यह अनल था उराँवों के किले रोहतास गढ़ के पतन का। उराँवों के पराभव और प्रतिशोध की इसी अग्नि में सूइयाँ तपाकर अपने चिबुक, ललाट या कनपटी पर गोदने की तीन बिदिंया धारण करती हैं उराँव लड़कियाँ ताकि हारे जा चुके अपने पुरखों के दुर्ग-रोहतास गढ़-की उस हारी हुई लड़ाई की कटु स्मृतियाँ धुँधली न पड़ जाएँ।
उराँव बालिकाओं की नसों में तप्त गोदने की सुइयों के दंश के साथ मानो उतारा जाता है प्रतिशोध का अर्क, जो आजीवन स्त्रियों की शिराओं-धमनियों में दौड़ता रहता है।
हर बारहवें वर्ष का फागुन उराँव समाज के लिए ‘जनीशिकार’ का महीना होता है। स्त्रियोचित वस्त्र और श्रृंगार तज कर पुरूषों का वेष धारण किये उराँव स्त्रियाँ परम्परागत अस्त्र-शस्त्रों के साथ पूरे बसन्त मृगया हेतु निकलती हैं। तीर-कमान, भाले-बरछी, कुल्हाड़ी और बलोया...! पुरूषों की ही भाँति आखेट करता फिरता है शिकारिनों का जत्था।
‘जनीशिकार’ कभी जंगल में होता था। घने जंगलों में धँस पड़ती थी शिकारिनें परन्तु अब जमींदारों ने अँग्रेज वनाधिकारियों के साथ साँठ-गाँठ कर जंगल में आदिवासियों के प्रवेश, आखेट एवं वनोपज एकत्र करने के आदिम अधिकारों पर पहरे बिठा दिये तो ‘जनीशिकार’ की परम्परा ही खतरे में पड़ गयी।
जमींदार अर्थात् आदिवासी बस्तियों का गोमके ! मालिक ! क्षेत्रपति ! क्षेत्र में कम्पनी सरकार का प्रतिनिधि !
शान्त सरल वनवासियों ने टकराव के बदले परिवर्तन की नीति अपनायी। परम्परा को संरक्षित रखने हेतु आवश्यक परिवर्तन। ‘जनीशिकार’ हेतु शिकारिनों के दल जंगल में जाने की जगह अब एक गाँव से दूसरे गाँव में जाने लगे।
पर्व-त्योहारों से ही नवजीवन पाते हैं वनवासी ! जीवन से जुड़े रहने की ललक...मनुष्य की जीवेष्णा हर अवरोध को अतिक्रमित कर सकती है। गाँवों के सहयोग और पंचायतों की सहभागिता ने ‘जनीशिकार’ को जीवित रखने की राह भी ढूँढ़ निकाली।
हर गाँव में एक मुखिया। दस, बीस या पचास गाँवों का एक परगना। परगना का प्रधान था परगनैत।
वसन्त आने से पूर्व बड़ी पंचायत जुड़ती। बड़ी पंचायत...‘लो-बिर-सेन्द्रा’ या ‘सेन्द्रा-दुरूप-ए’ ! इस बड़ी पंचायत में कई मुखिया और परगनैत मिल-बैठकर ‘जनीशिकार’ की योजना तैयार करते। शिकारिनों के लिए आखेट के मार्ग नियत किये जाते। बारी-बारी से हर गाँव के लिए तिथि नियत की जाती।
हर गाँव अपनी नियत तिथि को अन्य दूसरे गाँव के आगन्तुक शिकारिन दल का स्वागत करते। शिकारिनों का दल भी अपने पहुँचने की पूर्वसूचना भेजने की औपचारिकता अवश्य निभाता था।
गाँव का प्रधान पुजारी और मुखिया अतिथि शिकारिनों के लिए गाँव के पूरब में अखाड़ा तैयार कराते। शिकारिनों की अगवानी करने हेतु गाँव का प्रधान पुजारी गाँव के प्रवेश मार्ग पर उपस्थित होकर शिकारिनों का सम्मान करता था। एक गाँव से दूसरे गाँव तक...बारी-बारी से पहुँचता जाता ‘जनीशिकार’ का न्यौता जब तक हर उराँव गाँव ‘जनीशिकार’ का पर्व नहीं मना लेता। परगने के मुण्डा या सन्ताल गाँव भी उराँव गाँव की जनशिकरिनों को मान देते थे। पलाशखाँड़ गाँव की शिकारिनों का दल बिछिया की अगुआई में जब बाघामुण्डी के सीमान्त पर पहुँचा था तो उनकी आगवानी करने वाला नायके सीमान्त पर उपस्थित नहीं था। बिछिया ने दो दिन पूर्व ही धावे की सूचना भिजवायी थी फिर क्यों नहीं चेता था नायके ? गाँव के माँझी को भी तीज-त्योहार का डर नहीं रहा ?
उपेक्षा और अपमान से जनीशिकारिनों का रोआँ-रोआँ सुलगने लगा था। नायके नहीं आया न सही। न सही माँझी। जोग माँझी1 तो रहता। गोदेत2, परानिक3, या गुनी-गुरीब4 लोग तो आते सिवान पर जोहार करने।
जनीशिकार के दिन उराँव धाँगड़ियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं होतीं। वे असामान्य हो उठती हैं। युद्धरत योद्धा होती हैं। युद्ध को निकले वीरों के स्वागत हेतु प्रस्तुत न होना वीरों का घोर अपमान करना है। शिकारिनों का अपमान हुआ था। अपमान हुआ था एक परम्परा का। पुरखों का अपमान...।
शिकारिनों की प्रत्यंचाएँ भन्ना रही थीं। कमानों से निकल रहे थे तीर। बिंध रहे थे सूअर, बकरियाँ, छौने, मुर्गियाँ। जो पालतू पशु-पक्षी सामने दिख रहा था, मारा जा रहा था। अपने अपमान के बाद अब शिकारिनों को पूरी स्वतन्त्रता थी कि वे किसी के पालतू पशु-पक्षी को मार गिराएँ। संहार का उत्तरदायी था गाँव का नायके। गाँव की व्यवस्था। जनीशिकार के दल के इस परम्परागत सांस्कृतिक अधिकार को जंगल की किसी भी पंचायत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
गाँव के माँझी और नायके को ललकारती...फूहड़ गालियाँ देती...गाँव की अशिष्टता पर ग्रामवासियों को धिक्कारती, ....पूँछ पटकते, एड़ियाँ रगड़ते सूअर पर घृणा से थूककर आगे बढ़ती गयीं शिकारिनें।
अपनी झोंपड़ी के भीतर बैठा रहा हारिल मुरमू ! बाँस की पतली-पतली पट्टियों वाले दरवाजे के फँफारों से बाहर झाँकता रहा हारिल मुरमू। निरपराध सूअर मानवीय भूल का मूल्य चुका रहा था।
सूअर की दुम बार-बार ऐंठ कर फन्दे का आकार से रही थी, परन्तु देह की शक्ति चुक रही थी। धीरे-धीरे पूँछ का ऐंठना बन्द होने लगा। सूअर की पनियल आँखें पलटने लगीं। अपने पालतू सूअर को बाणविद्ध तड़पता देखता रहा विवश हारिल मुरमू।
1.उपमुखिया।
2.ग्रामदूत।
3.मुखिया का सेवक।
गाँव के प्रतिनिधि।
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